गुलज़ार और इब्न बतूता के जूते के बहाने

>> Wednesday, January 27, 2010

हाल ही में कहीं से लौटना हो रहा था और कार में ठसाठस बैठे हम सब ऍफ़ एम् रेडियो में बज रहे बेसुरे गानों और unimaginative विज्ञापनों से त्रस्त बातों को फूटबाल की तरह एक दिशा से दूसरी दिशा में ले जा रहे थे कि अचानक रेडियो पर विशाल भारद्वाज के संगीत में गुलज़ार साहब के बोल गूँज उठे - " इब्न बतूता ता ता ता..."
रेडियो और टीवी से एक लम्बे अरसे से दूरी बनाई हुयी है  मैंने, सो जहां बाकी के लोग गीत के साथ गुनगुना रहे थे वहीँ मैं इसे पहली बार सुन कर सोच में पड़ गया कि क्यों ये पंक्तियाँ ज़रा सुनी सुनी सी लग रही हैं, फिर याद आई बचपन में पराग में पढ़ी  सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की बाल-कविता बतूता का जूता. अरे हाँ! ये वही पंक्तियाँ तो हैं करीब करीब!
गुलज़ार साहब ने फिर से कहीं से इंस्पिरेशन ले एक मजेदार गीत रच डाला. अब तक बात बुल्ले शाह, ग़ालिब और खुसरो की पंक्तियों तक ही थी, पर सक्सेना जी की बाल कविता को एक नया टेक देना और उसे जनमानस में फिर से लोकप्रिय बनाना मानो एक खूबसूरत वेबपेज  को रिफ्रेश करके नए सिरे से देखने जैसा है...

इन ख्यालों में मैं खोया ही था कि बाजू से आवाज़ आई, "What does Ibn Battuta Means??"
और किसी ने जवाब दिया, "arre isn't it that shopping mall in Dubai...where we shopped last time?"

मैंने सर पीट लिया कि १३वीं सदी के महान यात्री और विद्वान् इब्न बतूता को याद रखने के लिए अब हमें गुलज़ार साहब के गाने और दुबई के shopping mall की ज़रूरत पड़ने लगी? बाद में ज़रा सी खोज से पता लगा उस माल में भी इब्न बतूता पर एक Interactive Display लगा हुआ है, काश उन्होंने वहाँ सिर्फ shopping ना करके वहाँ लगे इब्न बतूता के इस Interactive Display को भी देखा होता? कई बार कुछ खूबसूरत चीज़ें हमारी नज़रों के सामने ही होती हैं पर हमारी नज़र उन पर नहीं पड़ती क्योंकि हम किन्हीं और बातों में इतने खोये होते हैं कि हमें और कुछ नज़र ही नहीं आता, अगली बार इन्टरनेट को थोड़ी देर का ब्रेक दे कर अपने पिताजी के बचपन के किस्से सुन कर देखिएगा बड़ा आनंद आएगा ठीक वैसे ही जैसे इस गीत को सुन कर मुझे बचपन में पढ़ी इस बाल-कविता को याद करके आया.


इब्न बतूता का जूता - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में


कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता


उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दुकान में।

Read more...

  © Blogger template Werd by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP